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  मानस के स्मृति पटल पर आकर अमूल्य निधियां सोई हुई प्रतिभा को जागृत करने का प्रयास करती हैं ...... अनायास ही मन उन प्रणेताओं के प्रति श्रद्धासुमन अर्पित करने लगता है। आह! कितनी पावन है यह भारत भुमि 'शाकुन्तल के कालिदास, भास, भवभूति की भूमि, कबीर, सूर, तुलसी, जायसी से गौरवान्वित, प्रसाद पंत, निराला से सौन्दर्यमयी बनी, न जाने कितने सृजनकारों को प्राप्त कर धन्य हो गयी। साहित्यिक मनीषियों की यह समृद्ध परम्प्ररा एक और नवीन सृजन के लिए प्रेरणा प्रदान करती है तो दूसरी ओर समकालीन स्थिति-परिस्थति नवीन दृष्टि की मांग करती हैं । आज का मानव जिस दहलीज पर खडा है वहॉ समाज में जातिवाद, अस्प्र्रश्यता, सांस्कृतिक अलगाववाद जैसी विसंगतियाँ तो है ही साथ ही घुटन, तनाव, टूटन जैसी वैयक्तिक विसंगतियाँ भी हैं । समाज का प्रतिबिम्ब साहित्य उसकं उत्कर्ष-अपकर्ष, सजीवता, निर्जीवता तथा सभ्यता - असभ्यता का निर्णायक तत्व है। यही कारण है कि नित्य नई-नई धारणाओ एवं स्थापनाओं कं दौर से गुजरता हुआ साहित्य परिवर्तन की बयार लेकर आता है और जन्म लेती है एक नई सोच, यही सोच कुछ करने के लिए प्रेरित करती है। साहित्यिक मन उत्साहित हो उठता है कुछ करने कं लिए और फिर श्रृंखला में एक नईं कडी जुड़ जाती है । नि:संदेह "साहित्यामृतम्" भी एक ऐसी ही सोच का परिणाम है
  'साहित्यामृतम्' के प्रथम अंक में हमें शोध लेखकों का पूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ है। यह दूसरा अंक है जिसे संस्कृत एवं हिन्दी के शोध-लेखकों ने अपनी लेखनी से समृद्ध किया है । भविष्य में भी आप सब के सहयोग से ही यह शोध पत्रिका अपनी यात्रा अनवरत जारी रखेगी।
 
दीपा त्यागी
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